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इलाहाबाद के सच्चे किस्से
By फ़ुरसतिया on May 23, 2009
[आपने इलाहाबाद में हुई ब्लागिंग कार्यशाला के बारे में सिद्धार्थ त्रिपाठी के आधिकारिक बयान
पढ़े। अब हम आपको पढ़ाते हैं इलाहाबाद के सच्चे किस्से। हर पाठक को इन
किस्सों का खंडन करने और असहमत होने का अधिकार है काहे से कि हम किस्सा
सुना रहे हैं लेकिन उसे सही-गलत मानने के आपके अधिकार को चुनौती थोड़ी न दे
रहे हैं। :)]
आठ मई की शाम को नियत समय शाम साढ़े पांच से कुछ मिनट बाद ही हम (मैं और कविताजी) घटनास्थल पर पहुंच गये। निराला सभागार के बाहर सड़क पर चूने से ब्लागिंग लिखा था। बाकी का चूना लगाने के लिये हम चूना लिखी ब्लागिंग को रौंदते हुये गेट के अंदर धंस गये। वहां आयोजक और काम भर के श्रोता मौजूद थे। लेकिन मुख्य अतिथि के न आने से कोरम पूरा नहीं हुआ था। ज्ञानजी रीता भाभी और अपने लैपटाप के साथ समय पर आ गये थे।
रीताभाभी ने हमें उलाहना दिया कि उनके घर के पास होते ही भी हम दोपहर को भूखे क्यों रहे? हमने बताया भूखे नहीं रहे बल्कि फ़लाहार करके तपस्या करते हुये दिव्य भाषण के लिये ऊर्जा एकत्र कर रहे थे।
किस्सा यह हुआ कि दोपहर को हम जब अपने कालेज के गेस्ट हाउस में शान से गये यह सोचकर वहां लंच वगैरह किया जायेगा तो पता चला कि वहां भवन निर्माण कार्य करते के चलते किचन तक उखाड़ दिया गया है और चाय बनाने की भी व्यवस्था नहीं थी। फ़िर मजबूरन बाहर से चाय और फ़ल मंगाकर लंचनुमा कुछ किया गया। सिद्धार्थ या शायद कविताजी ने इसे रीता भाभी को बताना सबसे जरूरी समझा और हमारी संक्षिप्त क्लास हो गयी।
इस क्लास से हमें बचाया अरविन्द मिश्र जी ने। वे आकर बैठे ही थे हाल में कि हम उनको देख लिये और लपककर मिले। वो एक शेर है न बशीर बद्रजी का (दिमाग में फ़ंसा शायर का नाम निकालने में पूरे दो घंटे लग गये)
इस बीच हम अरविन्दजी के ब्लाग के नाम ( क्वचिदन्यतोअपि ) का मन ही मन उच्चारण का प्रयास करते रहे और सफ़लतापूर्वक असफ़ल होते रहे।
तब तक मुख्य अतिथि जी भी पधार गये। कार्यक्रम की शुरुआत के लिये हमलोगों को श्रोताओं से अलगकर वक्ताओं की तरफ़ बिठा दिया गया। हम बहुमत से कटकर अल्पमत में आ गये। अलबत्ता सिद्धार्थ बहुमत में ही बने रहे। इससे सिद्ध हुआ कि नौकरशाही अवसरवादी होती है और मौके के हिसाब से पाला बदलती रहती है। जिधर कुर्सी मिलती है बैठ जाती है।
लेकिन बाद में पता चला कि जितने लोगों को कार्यक्रम में वक्ता की हैसियत से बुलाया गया था उससे कुछ अधिक लोग उधर स्थापित हो लिये। स्थापित लोग इलाहाबाद के और कार्यक्रम से जुड़े स्थापित लोग थे अत: सिद्धार्थ वक्ता पक्ष की अल्पमत वाली कुर्सी का मोह त्याग कर बहुमत से जुड़ लिये।
कार्यक्रम की शुरुआत इमरान की शेरो-शायरी से हुई। धुंआधार एक से एक धांसू शेर इमरान धांस के सुनाते चले गये। हमें एकबारगी क्या कई बार लगा कि हम किसी कवि सम्मेलन में आये हैं। लेकिन चूंकि शेरो-शायरी से हम लोगों को जोड़-जाड़कर सुनाया जा रहा था इसलिये कूल-कूल लग रहा था। इमरान की आवाज बड़ी दिलकश और शेरो शायरी का संकलन बड़ा उम्दा है। हम बलिहारी हुये। आप भी जब सुनेंगे आप भी हो लेंगे।
सरस्वती प्रतिमा के सामने दीप-प्रज्जवलन के बात शुरू हुई। हमारे और अरविन्दजी के हिस्से एक ही बाती आयी। कविताजी के आवाहन पर उसे हम दोनों अ-नामराशि वालों ने मिलकर जलाया। बातियां जलती रहें इसलिये हमारे ऊपर का पंखा बंद कर दिया गया। हम गर्मी में सुलगती बातियों को निहारते रहे। इस बीच अचानक ज्ञानजी को अध्यक्ष बना दिया गया। उनके सामने कोई चारा भी न था मजबूरन उनको बन भी जाना पड़ा। हमें पुष्प गुच्छ भेंट किये गये हमने ले लिये। पहले सामने और तदन्तर नीचे धर दिये और फ़िर भाषण बाजी शुरू हुई।
स्वागत भाषण माननीया प्रो.अलका अग्रवालजी ने दिया। उन्होंने बड़े मन से भाषण दिया। एकबारगी तो हमें लगा कि शायद समापन भी उनके ही जिम्मे है लेकिन फ़िर उन्होंने भाषण समाप्त कर दिया और फ़िर इमरान के शेर-शायरी ब्रेक के बाद सिद्धार्थ त्रिपाठी ने विषय प्रवर्तन किया मतलब ब्लागिंग कार्यशाला की ओपेनिंग बैटिंग की।
सिद्दार्थ ने अपनी पोस्ट में समय के सरकने की बात कही थी। लेकिन हमें ऐसा कुछ नहीं लगा। हम सन 1992 से यह मानते आये हैं हमारे यहां काम घड़ी से नहीं कैलेन्डर से होता है। आज का काम आज निपट जाये समझिये समय से हो गया। कैलेन्डर सत्य है, घड़ी मिथ्या है। अब तक अधिकतर मामलों में मेरी धारणा को कोई कार्यक्रम चुनौती नहीं दे पाया।
जो शुरू हुआ है वह कभी न कभी खत्म भी होगा के सार्वभौमिक सिद्दान्त के तहत सिद्दार्थ का भाषण भी खत्म हुआ। हमें लग रहा था कि इसके बाद ज्ञानजी की बारी आयेगी। लेकिन इमरान ने दो-चार शेर मारकर हमें माइक के सामने खड़ा कर दिया।
हम भी खड़े हो गये और पोडियम और अपनी याददास्त के सहारेअपनी बात कह आये। अपनी तथाकथित बात कहते हुये देख रहे थे कि सामने कुछ लोग सुन रहे थे कुछ लोग जम्हुआ रहे थे। हालांकि ब्लागिंग की बात सुनने के लिहाज से हमें एकदम ताजे श्रोता मिले थे लेकिन हमारे भाषण ने श्रोताओं की ताजगी शीघ्र ही निपटा दी। ब्लागिंग का इतिहास बताते हुये हमने श्रोताओं का चेहरे का बिगड़ता हुआ भूगोल देखा और अप्रत्याशित समझदारी सी दिखाते हुये अपनी बात समाप्त कर दी- धन्यवाद देते हुये।
हमें पन्द्रह मिनट दिये गये थे बोलने के लिये लेकिन हमने पूरे सत्रह मिनट लिये। दो मिनट जबरिया ज्यादा बोले। जितना बोले उससे बहुत ज्यादा रह गया। वैसे भी चार साल के अनुभव/इतिहास को चौथाई घंटे में निपटाना जरा मुश्किल काम है।
हम जो बोल नहीं पाये उसका कोई अफ़सोस नहीं है मुझे। तमाम अज्ञानता और बेवकूफ़ी सामने आने से रह गयी। जब आप लम्बी पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आने वाली टिप्पणिय़ां तमाम गलतफ़हमियां भी पैदा करती हैं। या फ़िर लेख के खिलाफ़ आने वाली टिप्पणियों को आप दिल को बहलाने के लिये उत्साह वर्धक के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। लेकिन जब आप श्रोताओं के सामने हों और बोल भी रहे हों तो उनकी एक-एक प्रतिक्रिया आपके किये-धरे की चुगली करती है। मैंने जब महसूस किया कि हमारे बोलने में दोहराव हो रहा है और कुछ नया ध्यान में नहीं आ रहा है तो मैं अपने और बाद के साथी वक्ताओं की भलाई का ख्याल करते हुये अच्छे वक्ता की तरह समय पर बैठ गया। श्रोताओं ने भी ताली बजाते हुये अपनी खुशी का इजहार किया।
लेकिन एक घटना जिसका मैं जिक्र करना चाहता जो उस समय ध्यान नहीं आयी वह थी ब्लागिंग के जरिये संपन्न हुई शादी की। रविरतलामीजी की भांजी और अपने समय के चर्चित ब्लागर आशीष श्रीवास्तव के विवाह में ब्लागिंग का भी योगदान रहा है। जो लोग यह प्रचार करते हैं कि ब्लागिंग से घर उजड़ने का खतरे आते हैं , लड़ाई झगड़े हो जाते हैं, गुटबाजी है, मठाधीशी है उनकी जानकारी के लिये मैं बताना चाहता था कि ब्लागिंग में रिश्ते भी बन जाते हैं।
हमारे बाद अरविन्दजी ने मोर्चा संभाला। कुछ देर पावर प्वाइंट नहीं चला। इससे श्रोताओं को थोड़ा आराम मिल गया। फ़िर अरविन्दजी शुरू हुये और विस्तार से लोगों को ब्लागिंग की जानकारी देते हुये अपने योगदान के बारे में बताया। सिद्दार्थ ने उनके साथ गड़बड़ी की कि उनको बताया नहीं कि उनको कित्ती देर बोलना है। इस चक्कर में अरविन्दजी ग्रीन प्लाई की तरह चलते रहे और अपनी लगभग सारी स्लाइडें चला डालीं।
इस बीच कविताजी बार-बार उत्सुकता और किंचित चिंता से कह रहीं थीं कि उनकी बारी कब आयेगी? उनको वापस दूर जाना था और तबियत भी एकदम सही नहीं थी। उनको यह अच्छा नहीं लग रहा था श्रोता बिना कम्प्यूटिंग का ज्ञान लिये सभागार से जायें लेकिन निराले श्रोता निराला सभागार में/से अपनी मनमर्जी से आ-जा रहे थे। हाल अभी भी भरा ही था लेकिन लोगों के बीच जगह पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा निकल आई थी।
अरविन्दजी के बाद बोलने की बारी कविताजी या ज्ञानजी की आनी चाहिये थी लेकिन तब तक मुख्य अतिथि के जाने का समय हो गया और वे अंत तक कार्यक्रम में रहने की दिली इच्छा के बावजूद जाने के तत्पर हो गये। जाने के पहले उनसे सभी प्रतिभागियों को स्मृति चिन्ह दिलवाये गये और इसके बाद सभी को मुख्य अतिथि वाला व्याख्यान दिया!
मुख्य अतिथि ने जो व्याख्यान देना शुरू किया तो लगने लगा कि वे केवल दिया-बाती वाले मुख्य अतिथि नहीं हैं। उन्होंने वहां कम्प्यूटर कैसे काम करता है आदि के बारे में सारगर्भित ज्ञान दिया और तमाम जानकारी परक बातें बतायीं जिनसे हम स्वाभाविक रूप से विस्मित च प्रमुदित हुये। मुख्य अतिथि जी ने बताया कि वे भी ब्लागर हैं और अंग्रेजी में ब्लाग लिखते हैं। यह जानकारी मिलते ही हमें उनकी बातें और भली और ज्ञानवर्धक लगने लगीं। उन्होंने वायदा किया घर जाते ही वे तुरंत हिन्दी में नियमित ब्लाग लिखना शुरू करेंगे। इसके बाद मुख्य अतिथि चले गये। देर भी काम भर की हो चुकी थी।
अगले दिन हमने देखा कि मुख्य अतिथि श्री एस.पी.श्रीवास्तवजी का ब्लाग देखा। उसमें दो छोटी-छोटी पोस्टें हिन्दी में थीं।आशा है आगे भी श्रीवास्तवजी अपने ब्लाग में नियमित हिन्दी में लिखते रहेंगे।
फ़िलहाल इत्ता ही अन्य सच्चे किस्सों का जिक्र मन किया तो अगली पोस्ट में। मन किया इसलिये लिखा कि फ़ैशन के दौर में गारण्टी का वायदा करना अच्छी बात नहीं है जी।
मैंने बहुत उन्हें समझाया
कुछ आकर पलकों पर बैठे
कुछ होठों पर छाये
कुछ मन में व्याकुल हो उतरे
कुछ तन में लहराये।
एक गजब का ढीठ
अकल्पित तारों को छू आया।
छोटे-से कमरे में अनगिन-
दीख पड़े वातायन
किन्नरियों के नूपुर झनके
गन्धर्वों के गायन।
गोपन क्षण का एक समर्पण
अर्थ विकल हो आया।
रात न माने सपने
मैंने बहुत उन्हें समझाया
राजेंद्र किशोर
आठ मई की शाम को नियत समय शाम साढ़े पांच से कुछ मिनट बाद ही हम (मैं और कविताजी) घटनास्थल पर पहुंच गये। निराला सभागार के बाहर सड़क पर चूने से ब्लागिंग लिखा था। बाकी का चूना लगाने के लिये हम चूना लिखी ब्लागिंग को रौंदते हुये गेट के अंदर धंस गये। वहां आयोजक और काम भर के श्रोता मौजूद थे। लेकिन मुख्य अतिथि के न आने से कोरम पूरा नहीं हुआ था। ज्ञानजी रीता भाभी और अपने लैपटाप के साथ समय पर आ गये थे।
रीताभाभी ने हमें उलाहना दिया कि उनके घर के पास होते ही भी हम दोपहर को भूखे क्यों रहे? हमने बताया भूखे नहीं रहे बल्कि फ़लाहार करके तपस्या करते हुये दिव्य भाषण के लिये ऊर्जा एकत्र कर रहे थे।
किस्सा यह हुआ कि दोपहर को हम जब अपने कालेज के गेस्ट हाउस में शान से गये यह सोचकर वहां लंच वगैरह किया जायेगा तो पता चला कि वहां भवन निर्माण कार्य करते के चलते किचन तक उखाड़ दिया गया है और चाय बनाने की भी व्यवस्था नहीं थी। फ़िर मजबूरन बाहर से चाय और फ़ल मंगाकर लंचनुमा कुछ किया गया। सिद्धार्थ या शायद कविताजी ने इसे रीता भाभी को बताना सबसे जरूरी समझा और हमारी संक्षिप्त क्लास हो गयी।
इस क्लास से हमें बचाया अरविन्द मिश्र जी ने। वे आकर बैठे ही थे हाल में कि हम उनको देख लिये और लपककर मिले। वो एक शेर है न बशीर बद्रजी का (दिमाग में फ़ंसा शायर का नाम निकालने में पूरे दो घंटे लग गये)
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक सेइसकी शेरअदूली करते हुये हमने पहिले हाथ मिलाया और फ़िर गले भी मिल लिये। लेकिन हमारे इस दुस्साहस से शेर की महत्ता कम नहीं हो जाती। अरविन्दजी को शायद इसका एहसास बाद में हुआ होगा । सिद्धार्थ से पता चल ही चुका था कि अरविन्दजी की कमर में दर्द था, मुश्किल से आये थे, सिद्धार्थ को दिये वचन को निबाहने। इन्हीं जानकारियॊं के सहारे हमने मिलते ही उनकी सेहत को लेकर ढेर सारे सवाल पूछ डाले और वजन कम करने की सलाह उछाल ली जिसे अरविन्दजी ने लपककर धर लिया। मिलन-जुलन प्रक्रिया का औपचारिक हिस्सा निपट लिया।
ये नये मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।
इस बीच हम अरविन्दजी के ब्लाग के नाम ( क्वचिदन्यतोअपि ) का मन ही मन उच्चारण का प्रयास करते रहे और सफ़लतापूर्वक असफ़ल होते रहे।
तब तक मुख्य अतिथि जी भी पधार गये। कार्यक्रम की शुरुआत के लिये हमलोगों को श्रोताओं से अलगकर वक्ताओं की तरफ़ बिठा दिया गया। हम बहुमत से कटकर अल्पमत में आ गये। अलबत्ता सिद्धार्थ बहुमत में ही बने रहे। इससे सिद्ध हुआ कि नौकरशाही अवसरवादी होती है और मौके के हिसाब से पाला बदलती रहती है। जिधर कुर्सी मिलती है बैठ जाती है।
लेकिन बाद में पता चला कि जितने लोगों को कार्यक्रम में वक्ता की हैसियत से बुलाया गया था उससे कुछ अधिक लोग उधर स्थापित हो लिये। स्थापित लोग इलाहाबाद के और कार्यक्रम से जुड़े स्थापित लोग थे अत: सिद्धार्थ वक्ता पक्ष की अल्पमत वाली कुर्सी का मोह त्याग कर बहुमत से जुड़ लिये।
कार्यक्रम की शुरुआत इमरान की शेरो-शायरी से हुई। धुंआधार एक से एक धांसू शेर इमरान धांस के सुनाते चले गये। हमें एकबारगी क्या कई बार लगा कि हम किसी कवि सम्मेलन में आये हैं। लेकिन चूंकि शेरो-शायरी से हम लोगों को जोड़-जाड़कर सुनाया जा रहा था इसलिये कूल-कूल लग रहा था। इमरान की आवाज बड़ी दिलकश और शेरो शायरी का संकलन बड़ा उम्दा है। हम बलिहारी हुये। आप भी जब सुनेंगे आप भी हो लेंगे।
सरस्वती प्रतिमा के सामने दीप-प्रज्जवलन के बात शुरू हुई। हमारे और अरविन्दजी के हिस्से एक ही बाती आयी। कविताजी के आवाहन पर उसे हम दोनों अ-नामराशि वालों ने मिलकर जलाया। बातियां जलती रहें इसलिये हमारे ऊपर का पंखा बंद कर दिया गया। हम गर्मी में सुलगती बातियों को निहारते रहे। इस बीच अचानक ज्ञानजी को अध्यक्ष बना दिया गया। उनके सामने कोई चारा भी न था मजबूरन उनको बन भी जाना पड़ा। हमें पुष्प गुच्छ भेंट किये गये हमने ले लिये। पहले सामने और तदन्तर नीचे धर दिये और फ़िर भाषण बाजी शुरू हुई।
स्वागत भाषण माननीया प्रो.अलका अग्रवालजी ने दिया। उन्होंने बड़े मन से भाषण दिया। एकबारगी तो हमें लगा कि शायद समापन भी उनके ही जिम्मे है लेकिन फ़िर उन्होंने भाषण समाप्त कर दिया और फ़िर इमरान के शेर-शायरी ब्रेक के बाद सिद्धार्थ त्रिपाठी ने विषय प्रवर्तन किया मतलब ब्लागिंग कार्यशाला की ओपेनिंग बैटिंग की।
सिद्दार्थ ने अपनी पोस्ट में समय के सरकने की बात कही थी। लेकिन हमें ऐसा कुछ नहीं लगा। हम सन 1992 से यह मानते आये हैं हमारे यहां काम घड़ी से नहीं कैलेन्डर से होता है। आज का काम आज निपट जाये समझिये समय से हो गया। कैलेन्डर सत्य है, घड़ी मिथ्या है। अब तक अधिकतर मामलों में मेरी धारणा को कोई कार्यक्रम चुनौती नहीं दे पाया।
जो शुरू हुआ है वह कभी न कभी खत्म भी होगा के सार्वभौमिक सिद्दान्त के तहत सिद्दार्थ का भाषण भी खत्म हुआ। हमें लग रहा था कि इसके बाद ज्ञानजी की बारी आयेगी। लेकिन इमरान ने दो-चार शेर मारकर हमें माइक के सामने खड़ा कर दिया।
हम भी खड़े हो गये और पोडियम और अपनी याददास्त के सहारेअपनी बात कह आये। अपनी तथाकथित बात कहते हुये देख रहे थे कि सामने कुछ लोग सुन रहे थे कुछ लोग जम्हुआ रहे थे। हालांकि ब्लागिंग की बात सुनने के लिहाज से हमें एकदम ताजे श्रोता मिले थे लेकिन हमारे भाषण ने श्रोताओं की ताजगी शीघ्र ही निपटा दी। ब्लागिंग का इतिहास बताते हुये हमने श्रोताओं का चेहरे का बिगड़ता हुआ भूगोल देखा और अप्रत्याशित समझदारी सी दिखाते हुये अपनी बात समाप्त कर दी- धन्यवाद देते हुये।
हमें पन्द्रह मिनट दिये गये थे बोलने के लिये लेकिन हमने पूरे सत्रह मिनट लिये। दो मिनट जबरिया ज्यादा बोले। जितना बोले उससे बहुत ज्यादा रह गया। वैसे भी चार साल के अनुभव/इतिहास को चौथाई घंटे में निपटाना जरा मुश्किल काम है।
हम जो बोल नहीं पाये उसका कोई अफ़सोस नहीं है मुझे। तमाम अज्ञानता और बेवकूफ़ी सामने आने से रह गयी। जब आप लम्बी पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आने वाली टिप्पणिय़ां तमाम गलतफ़हमियां भी पैदा करती हैं। या फ़िर लेख के खिलाफ़ आने वाली टिप्पणियों को आप दिल को बहलाने के लिये उत्साह वर्धक के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। लेकिन जब आप श्रोताओं के सामने हों और बोल भी रहे हों तो उनकी एक-एक प्रतिक्रिया आपके किये-धरे की चुगली करती है। मैंने जब महसूस किया कि हमारे बोलने में दोहराव हो रहा है और कुछ नया ध्यान में नहीं आ रहा है तो मैं अपने और बाद के साथी वक्ताओं की भलाई का ख्याल करते हुये अच्छे वक्ता की तरह समय पर बैठ गया। श्रोताओं ने भी ताली बजाते हुये अपनी खुशी का इजहार किया।
लेकिन एक घटना जिसका मैं जिक्र करना चाहता जो उस समय ध्यान नहीं आयी वह थी ब्लागिंग के जरिये संपन्न हुई शादी की। रविरतलामीजी की भांजी और अपने समय के चर्चित ब्लागर आशीष श्रीवास्तव के विवाह में ब्लागिंग का भी योगदान रहा है। जो लोग यह प्रचार करते हैं कि ब्लागिंग से घर उजड़ने का खतरे आते हैं , लड़ाई झगड़े हो जाते हैं, गुटबाजी है, मठाधीशी है उनकी जानकारी के लिये मैं बताना चाहता था कि ब्लागिंग में रिश्ते भी बन जाते हैं।
हमारे बाद अरविन्दजी ने मोर्चा संभाला। कुछ देर पावर प्वाइंट नहीं चला। इससे श्रोताओं को थोड़ा आराम मिल गया। फ़िर अरविन्दजी शुरू हुये और विस्तार से लोगों को ब्लागिंग की जानकारी देते हुये अपने योगदान के बारे में बताया। सिद्दार्थ ने उनके साथ गड़बड़ी की कि उनको बताया नहीं कि उनको कित्ती देर बोलना है। इस चक्कर में अरविन्दजी ग्रीन प्लाई की तरह चलते रहे और अपनी लगभग सारी स्लाइडें चला डालीं।
इस बीच कविताजी बार-बार उत्सुकता और किंचित चिंता से कह रहीं थीं कि उनकी बारी कब आयेगी? उनको वापस दूर जाना था और तबियत भी एकदम सही नहीं थी। उनको यह अच्छा नहीं लग रहा था श्रोता बिना कम्प्यूटिंग का ज्ञान लिये सभागार से जायें लेकिन निराले श्रोता निराला सभागार में/से अपनी मनमर्जी से आ-जा रहे थे। हाल अभी भी भरा ही था लेकिन लोगों के बीच जगह पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा निकल आई थी।
अरविन्दजी के बाद बोलने की बारी कविताजी या ज्ञानजी की आनी चाहिये थी लेकिन तब तक मुख्य अतिथि के जाने का समय हो गया और वे अंत तक कार्यक्रम में रहने की दिली इच्छा के बावजूद जाने के तत्पर हो गये। जाने के पहले उनसे सभी प्रतिभागियों को स्मृति चिन्ह दिलवाये गये और इसके बाद सभी को मुख्य अतिथि वाला व्याख्यान दिया!
मुख्य अतिथि ने जो व्याख्यान देना शुरू किया तो लगने लगा कि वे केवल दिया-बाती वाले मुख्य अतिथि नहीं हैं। उन्होंने वहां कम्प्यूटर कैसे काम करता है आदि के बारे में सारगर्भित ज्ञान दिया और तमाम जानकारी परक बातें बतायीं जिनसे हम स्वाभाविक रूप से विस्मित च प्रमुदित हुये। मुख्य अतिथि जी ने बताया कि वे भी ब्लागर हैं और अंग्रेजी में ब्लाग लिखते हैं। यह जानकारी मिलते ही हमें उनकी बातें और भली और ज्ञानवर्धक लगने लगीं। उन्होंने वायदा किया घर जाते ही वे तुरंत हिन्दी में नियमित ब्लाग लिखना शुरू करेंगे। इसके बाद मुख्य अतिथि चले गये। देर भी काम भर की हो चुकी थी।
अगले दिन हमने देखा कि मुख्य अतिथि श्री एस.पी.श्रीवास्तवजी का ब्लाग देखा। उसमें दो छोटी-छोटी पोस्टें हिन्दी में थीं।आशा है आगे भी श्रीवास्तवजी अपने ब्लाग में नियमित हिन्दी में लिखते रहेंगे।
फ़िलहाल इत्ता ही अन्य सच्चे किस्सों का जिक्र मन किया तो अगली पोस्ट में। मन किया इसलिये लिखा कि फ़ैशन के दौर में गारण्टी का वायदा करना अच्छी बात नहीं है जी।
मेरी पसन्द
रात न माने सपनेमैंने बहुत उन्हें समझाया
कुछ आकर पलकों पर बैठे
कुछ होठों पर छाये
कुछ मन में व्याकुल हो उतरे
कुछ तन में लहराये।
एक गजब का ढीठ
अकल्पित तारों को छू आया।
छोटे-से कमरे में अनगिन-
दीख पड़े वातायन
किन्नरियों के नूपुर झनके
गन्धर्वों के गायन।
गोपन क्षण का एक समर्पण
अर्थ विकल हो आया।
रात न माने सपने
मैंने बहुत उन्हें समझाया
राजेंद्र किशोर
हम्म, आपके बोलने पर खुशी ज़ाहिर की या आपके बैठ जाने पर, ज़रा खुलासा करके बताना था, ही ही ही!!
बाकी रपट चकाचक है, आप लिखे हैं तो सच ही मान लेते हैं, समीर जी को उद्धृत किया जाए तो – आखिर क्रेडिबिलिटी भी कोई चीज़ है!
मजेदार रही…किस्सागोहि…
पसंद वाली कविता पसंद आई.
धन्यवाद!!!
आपकी यह रिपोर्ट दिलचस्प किस्से की तरह है। पढने में मजा आया।
एकदम सटीक लाईन।
आप हर पोस्ट में कुछ लाईन्स ऐसी लिख देते हैं जो वाकई सटीक होती हैं।
मुझे भी डर तो लगा कि
बाहों में भरते हो लेकिन
अन्दर तो बेगानापन है
मगर यहाँ भी शेरअदूली ही हुयी -हम अंकवार भर मिले -सहज भाव से !
इस बार की कविता तो दम तोडू है !
Full चकाचक!
ये {‘घटनास्थल’ पर पहुँचे} तो ऐसे लग रहा है, जैसे पोलिस हत्या वाले स्थान पर तफ़्तीश करने पहुँची हो।
रामराम.
ब्लौगिंग को लेकर?
अच्छी रिपोर्टिंग ।
ये नये मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।…
“Matlab jo samjhe mere sandesh ka…
..Is Desh main hai kya koi mere desh ka?”
पहले से तैयार नहीं किया था क्या बोलेगें? बिना तैयारी किए मंच पर उतरने के लिए तो हिम्मत चाहिए।
बाकी चकाचक मजेदार रिपोर्टिंग
आँखो देखा हाल पढ़कर।