http://web.archive.org/web/20140419214111/http://hindini.com/fursatiya/archives/653
कानपुर में जिन विद्यालयों में ड्रेस कोड की बात चली वे बालिका विद्यालय हैं। जब सब लड़कियां हैं तो ड्रेस के कारण छेड़छाड़ कौन करेगा? क्राइस्ट चर्च कालेज में सहशिक्षा है। वहां ड्रेस की कोई पाबंदी नहीं है लेकिन छेड़छाड़ की कोई बात नहीं उठती। प्रधानाचार्यों में भी मतभेद हैं इस मसले में। कुछ इसे वाहियात मानते हैं और कुछ जरूरी।
एक सहशिक्षा विद्यालय में कुछ साल पहले ड्रेस कोड लागू हुआ तो छात्र कमीज उतारकर कालेज आ गये। ड्रेस कोड वापस हो गया।
ड्रेस कोड के समर्थकों में से कुछ का कहना है कि एक समान ड्रेस होने से गरीब छात्र-छात्राओं में दूसरों के फ़ैशनेबल कपड़े देखकर हीनभावना नहीं उपजती।
ड्रेस कोड के पक्ष और विपक्ष में तमाम तर्क जुटाये जा सकते हैं लेकिन जब समाज में हर तरफ़ खुलेपन की बात हो रही हो। टीवी, मीडिया, अखबार, सिनेमा और समाज में फ़ैशनेबल चीजें दनादन छाती जा रही हों तो बच्चे जो कालेज में जा रहे हैं उनके बीच ड्रेस कोड की बातें करना पिछड़ापन ही माना जायेगा।
संबंधित लेख: ड्रेस कोड: शुभ्र श्वेत सलवार कुर्ता! , जैन समाज को जींस-टॉप में फूहड़ता झलकती है.. क्यूं ? , चित्र फ़्लिकर से साभार
इस तरह के बाजार-प्रायोजित डे अपना प्रसार हमारे यहां भी करते जा रहे हैं और हर ऐसे दिन लगता है कि बताओ भला हमारे लिये एक ही दिन बचा साल में। लेकिन यह भी सच है कि जब बच्चा अनायास सोते से जगाकर पानी का ग्लास देते हुये कहे- हैप्पी फ़ादर्स डे तो कम से कम मुस्कराहट तो आयेगी ही।
वैसे क्लास तो टिप्पणियों में भी हो रही है। कुश ने समीरजी की पोस्ट में टिपियाया- हम पर तो संवेदनशील होने के आरोप गाहे बगाहे लगते ही रहते है.. आप भी इस तरह लिखने लगे?? अनूप जी डंडा लेकर आते ही होंगे… हम सोचते ही रह गये क्या जबाब लिखें!
ब्लागजगत में टिप्पणियां अकसर औपचारिक टाइप की होती हैं। पिछली टिप्पणी से मिलती-जुलती। नये लेखक की बात छोड़ दें तो पुराने ब्लागर के प्रति टिप्पणी अक्सर उसकी इमेज के अनुसार होती है। ऐसा करना आसान होता है। विपरीत टिप्पणी बहुत कम पसंद करते हैं लोग। अगर आलोचना कर दी तो और लफ़ड़ा। फ़िर झेलो लम्बे जबाब। बड़ा झाम होता है। यह सब अक्सर हड़बड़ी के कारण भी होता है। हड़बड़ी हर तरह की रहती है। पोस्ट करने की, पढ़ने की (और भी ब्लाग हैं भाई), टिपियाने की और टिप्पणियों का जबाब देने की भी। मेरी समझ में विपरीत टिप्पणियां खुदा की नियामत की तरह होती हैं। उनसे सीखने का अवसर चूकना बेवकूफ़ी ही होती है।
समीरजी का लेख लोगों के बहुत पसंद आया। बहुत लोगों ने तारीफ़ भी की। लेकिन मेरी समझ में इस तरह के लेख जानकारी के अंतर्गत लिखे जाने चाहिये न कि हास्य-व्यंग्य में। लेकिन समीरजी की भी मजबूरी है क्या करें? यह सब सोचे तो फ़िर तो लिखना हो चुका जैसा उन्होंने रचनाजी की टिप्पणी के जबाब में लिखा भी:
रचना जी
इसमें फन कैसा..मजाक तो हमने अपने निमंत्रण पत्र का उड़ाया है जो ऐसा रुप ले चुका है..उनकी परंपरा तो वो जानें..हम तो जो देखते हैं, उसे अपने से कम्पेयर कर लिख देते हैं. इसमें उनकी क्या सोच होगी, यह सोचने लगे तो क्या एक भी पंक्ति लिखना संभव हो पायेगा.
सही भी है। मन की उड़ान को अंकुश लगाया जायेगा तो मन उड़ेगा कैसे?
जींस-टाप, फ़ादर्स-डे और टिप्पणी-चिंतन
By फ़ुरसतिया on June 23, 2009
जींस-टाप में उभार दिखते हैं
हर साल की तरह इस वर्ष भी कानपुर के कुछ बालिका विद्यालयों में ड्रेस कोड का हल्ला मचा। ऐसा हर साल जुलाई में होता है। लड़कियां ये पहनेंगी वो नहीं पहनेंगी। मोबाइल नहीं लायेंगी और इसी तरह की हेन-तेन। शहर के अखबारों में बयानबाजी होती है और फ़िर मामला खलास। इस बार टेलीविजन पर भी उठा मामला। टी.वी. पर भी काफ़ी बहस हुई। टेलीविजन वाले ऐसे सांस्कृतिक मामलों में बहस के लिये सिंघल साहब को जरूर पकड़ लाते हैं। सिंघल साहब पुराने माने जाने वाले सांस्कृतिक मूल्यों के हिमायती हैं और बल भर कोशिश करते हैं अपनी बात के पक्ष में तर्क पेश करने के लिये। इस बार लड़कियों के जींस-टाप पहनने के खिलाफ़ उनका तर्क था - इस तरह के पहनावे में लड़कियों के उभार ज्यादा साफ़ दिखते हैं इसलिये विद्यालयों में जींस-टाप पर प्रतिबंध उचित हैं।कानपुर में जिन विद्यालयों में ड्रेस कोड की बात चली वे बालिका विद्यालय हैं। जब सब लड़कियां हैं तो ड्रेस के कारण छेड़छाड़ कौन करेगा? क्राइस्ट चर्च कालेज में सहशिक्षा है। वहां ड्रेस की कोई पाबंदी नहीं है लेकिन छेड़छाड़ की कोई बात नहीं उठती। प्रधानाचार्यों में भी मतभेद हैं इस मसले में। कुछ इसे वाहियात मानते हैं और कुछ जरूरी।
एक सहशिक्षा विद्यालय में कुछ साल पहले ड्रेस कोड लागू हुआ तो छात्र कमीज उतारकर कालेज आ गये। ड्रेस कोड वापस हो गया।
ड्रेस कोड के समर्थकों में से कुछ का कहना है कि एक समान ड्रेस होने से गरीब छात्र-छात्राओं में दूसरों के फ़ैशनेबल कपड़े देखकर हीनभावना नहीं उपजती।
ड्रेस कोड के पक्ष और विपक्ष में तमाम तर्क जुटाये जा सकते हैं लेकिन जब समाज में हर तरफ़ खुलेपन की बात हो रही हो। टीवी, मीडिया, अखबार, सिनेमा और समाज में फ़ैशनेबल चीजें दनादन छाती जा रही हों तो बच्चे जो कालेज में जा रहे हैं उनके बीच ड्रेस कोड की बातें करना पिछड़ापन ही माना जायेगा।
संबंधित लेख: ड्रेस कोड: शुभ्र श्वेत सलवार कुर्ता! , जैन समाज को जींस-टॉप में फूहड़ता झलकती है.. क्यूं ? , चित्र फ़्लिकर से साभार
हैप्पी फ़ादर्स डे:
परसों सुबह-सुबह मेरे छोटे बच्चे ने सोते से उठाकर मुझे एक गिलास पानी दिया और बोला -हैप्पी फ़ादर्स डे। पता चला कि हमारे लिये एक दिन पहले गिफ़्ट भी खरीदने के लिये प्रयासरत थे। उसको तो कोई उपहार मेरे लिये पसंद नहीं आया ( पैसे नहीं थे ज्यादा उसके पास ) लेकिन उसके याद दिलाने और उकसाने पर मेरी भान्जी अपने पापा के लिये एक चाभी का गुच्छा खरीद कर ले गई।इस तरह के बाजार-प्रायोजित डे अपना प्रसार हमारे यहां भी करते जा रहे हैं और हर ऐसे दिन लगता है कि बताओ भला हमारे लिये एक ही दिन बचा साल में। लेकिन यह भी सच है कि जब बच्चा अनायास सोते से जगाकर पानी का ग्लास देते हुये कहे- हैप्पी फ़ादर्स डे तो कम से कम मुस्कराहट तो आयेगी ही।
तब तो हो चुका लिखना
मेरा कविता लिखना कितना खतरनाक हो सकता है यह पिछली पोस्ट से अन्दाज लगा। मैंने तुकबंदी करते हुये पिछली पोस्ट में लिखा था-सोचते हैं चले ही जायें अगले हफ़्ते कलकत्तेइस पर लोगों ने हमारी कलकत्ता यात्रा के बारे में तमाम सवाल पूछ डाले। किसी ने कहा -कलकत्ते से वापस आ गये, कोई बोला अभी मत आओ अगले हफ़्ते आना। कविता भी शपथपत्र की तरह हो गयी भैये। जो लिखा वो नहीं हुआ तो क्लास हो जायेगी।
वहां रहता है अपना बचपन का यार फ़त्ते,
बता रहा था वहां वो थोक में बेचता है गत्ते
लौटते में हमेशा सिलवा देता है कपड़े लत्ते!
वैसे क्लास तो टिप्पणियों में भी हो रही है। कुश ने समीरजी की पोस्ट में टिपियाया- हम पर तो संवेदनशील होने के आरोप गाहे बगाहे लगते ही रहते है.. आप भी इस तरह लिखने लगे?? अनूप जी डंडा लेकर आते ही होंगे… हम सोचते ही रह गये क्या जबाब लिखें!
ब्लागजगत में टिप्पणियां अकसर औपचारिक टाइप की होती हैं। पिछली टिप्पणी से मिलती-जुलती। नये लेखक की बात छोड़ दें तो पुराने ब्लागर के प्रति टिप्पणी अक्सर उसकी इमेज के अनुसार होती है। ऐसा करना आसान होता है। विपरीत टिप्पणी बहुत कम पसंद करते हैं लोग। अगर आलोचना कर दी तो और लफ़ड़ा। फ़िर झेलो लम्बे जबाब। बड़ा झाम होता है। यह सब अक्सर हड़बड़ी के कारण भी होता है। हड़बड़ी हर तरह की रहती है। पोस्ट करने की, पढ़ने की (और भी ब्लाग हैं भाई), टिपियाने की और टिप्पणियों का जबाब देने की भी। मेरी समझ में विपरीत टिप्पणियां खुदा की नियामत की तरह होती हैं। उनसे सीखने का अवसर चूकना बेवकूफ़ी ही होती है।
समीरजी का लेख लोगों के बहुत पसंद आया। बहुत लोगों ने तारीफ़ भी की। लेकिन मेरी समझ में इस तरह के लेख जानकारी के अंतर्गत लिखे जाने चाहिये न कि हास्य-व्यंग्य में। लेकिन समीरजी की भी मजबूरी है क्या करें? यह सब सोचे तो फ़िर तो लिखना हो चुका जैसा उन्होंने रचनाजी की टिप्पणी के जबाब में लिखा भी:
रचना जी
इसमें फन कैसा..मजाक तो हमने अपने निमंत्रण पत्र का उड़ाया है जो ऐसा रुप ले चुका है..उनकी परंपरा तो वो जानें..हम तो जो देखते हैं, उसे अपने से कम्पेयर कर लिख देते हैं. इसमें उनकी क्या सोच होगी, यह सोचने लगे तो क्या एक भी पंक्ति लिखना संभव हो पायेगा.
सही भी है। मन की उड़ान को अंकुश लगाया जायेगा तो मन उड़ेगा कैसे?
चाहे बेमन से उड़े
मन की उड़ान
भला रोक सका है कौन
समग्र चर्चा पढ़ा और अब समझने जा रहा हूँ!!
Freedom of expression
जिसका जो जी मेँ आता है,
वही लिख देता है -
जब कोई सही भी लिखे,
उसीको ,
टीप्पणी बुरी या अपमानजनक भी
मिल जाती है -
(I have had that experience )
लोगोँ के मन की थाह तो ईश्वर भी नहीँ पायेँगेँ
- लावण्या
यद्यपि आपने सही कहा है कि लाभ उसी से होता है ।
(वैसे जीनाइटिस ग्रस्त बालायें दर्शनीया होती तो हैं।)
टिपण्णी चर्चा पढी. अच्छी लगी. आप आजकल डंडा लेकर टिप्पणी करने क्यों जाते हैं? कीबोर्ड काफी नहीं है क्या?
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ओर हाँ
इस तरह के “बाज़ार प्रयोजित डे’ पर आपने दो दिन पहले भावुक होकर एक “सेंटी मेंटालाना चिटठा चर्चा” कर कितने पाठको को भावुक कर दिया था …हाय हमें लगा कवि ह्रदय शुक्ल जी कितने सेंटी है….आज आप अगेंस्ट हो गए .हाय ये पलटी क्यों ?
भाई जी, यह शिकायत फिर दोहरा रहा हूँ, आपकी ( आपके पोस्ट के ) फ़ीड नहीं मिल रही है । मैं इतना निट्ठल्ला आदमी रोज रोज आपकी गली के चक्कर कब तक लगाऊँ ? इस ओर आपकी उपेक्षा देख प्रार्थी जनसूचना अधिकार का उपयोग करने को बाध्य होता जा रहा है । फिर न कहना कि..
रही बात टिप्पणियों की.. तथाकथित अस्वस्थ टिप्पणियों को उदार+सहज सोच की ठँडाई पी कर स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं दिखती । ब्लागजगत मे खट्टा मीठा तीता चरपरा कड़वा सब कुछ है । अपनी अपेक्षाओं को टिप्पणी में देना टिप्पणीकार के सोच पर कोई प्रश्नचिन्ह तो नहीं ?
शायद मैं अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा हूँ, अस्तु इति टिप्पणीः
चलते चलते.. .. अहँ को दुलराने वाली टिप्पणियों से आख़िर घाटा किससो होता है ?
टिप्पणीकार को.. ?
नहीं, कत्तई नहीं !
आपने उदारवादी और अनुदारवादी पितृसत्ता वालों में अन्तर देखा? उदारवादियों को उभार दिखने नहीं चाहिए,अनुदारवादियों को उभारवालियाँ ही नहीं दिखनी चाहिए। अतिउदारवादी ऐसी किसी आशंका को जन्म ही नहीं लेने देते।
घुघूती बासूती
और 15 दिन मे ख़त्म हो जाते है,
अच्छा व्यंग लिखा आपने,
धन्यवाद,
फिर अभी . पोस्ट पर कमेन्ट करने से क्या होगा
तालिबान सभ्यता के पुजारी ड्रेस कोड लगाते
रहे गए और उदारवादी ड्रेस कोड नहीं ड्रेस उतारते
रहेगे . इस झमेले मे जिस पर कोड लगाया हैं
वो क्या चाहती हैं इस की चर्चा पता नहीं कब होगी
जैसे एक पोस्ट पर आपने कमेन्ट मे कहा हैं
रोने से आंखे सुंदर हो जाती हैं वैसे ही यहाँ ज्ञान
के कमेन्ट मे (वैसे जीनाइटिस
ग्रस्त बालायें दर्शनीया होती तो हैं।) कहा गया हैंं
बाकी यहाँ से आगे वाही लिखना हैं जो घुघूती
बासूती का कमेन्ट हैं
सादर
रचना
रामराम.
एक रैशनल थिन्किंग की जरूरत है. हमारा समाज जब भी कोइ कदम उठाता है लोग अतिवादी होने लगते हैं. छूट मिली तो युवा कॉलेज में पार्टी वाले ड्रेस पहनने शुरु कर दें, व्यव्स्थापक ने कड़ाई किया तो कौन से तरह का जीन्स पता हो ना हो सब के सब प्रतिबंधित कर दिया.
वाकई मजबूरी कहिये या आदत-मैं तो यहाँ पढ़ाने भी जाता हूँ तो अक्सर जानकारियाँ हास्य-व्यंग्य-विनोद के माध्यम से ही देता हूँ और मैने देखा है कि छात्रों में उसकी ग्राह्यता ज्यादा रहती है.
अक्सर कोशिश होती है कि हँसते हँसाते ही अगर कुछ जानकारी बाँटी जाये तो क्या नुकसान है. बस, इसलिए.
ड्रेस कोड और इससे जुडी परिचर्चा विशेष मायने रखती हैं उनलोगों के लिए जो इन परिचर्चा में सामिल होतें हैं और सामाजिक दर्शन को अपने डंग से बताने की कोशिश करते हैं, और रही बात समाज के पथ पर्दर्शन का तो उसमे सिक्षा , सभ्यता और संस्कृति का एक साथ समन्वय होना जरुरी हैं……….यह मेरा मानना हैं
हैप्पी फ़ादर्स डे:
आपके छोटे द्वारा पानी लाना अच्छा लगा.
तब तो हो चुका लिखना
“मेरी समझ में विपरीत टिप्पणियां खुदा की नियामत की तरह होती हैं। उनसे सीखने का अवसर चूकना बेवकूफ़ी ही होती है।” …… आपकी यह बात मुझे बहुत पसंद आई.
एक बात मैं कहना चाहुंगा की अगर ड्रेस कोड ना हो तो अश्लिलता की ज़द मे आने वाले कपडे लडकियां ही पहनती हैं पता नही अपना ज़िस्म दिखाने मे उन्हे क्या मज़ा आता है?
लेकिन जब दिखते ज़िस्म को गौर से देखो तो छोटे कपडें को खिचं कर बडा करने की कोशिश करती है ऐसा क्यौं? जब शर्म आती है तो ऐसा कपडा पहनते ही क्यौं हो?
एक बात मैं कहना चाहुंगा की अगर ड्रेस कोड ना हो तो अश्लिलता की ज़द मे आने वाले कपडे लडकियां ही पहनती हैं पता नही अपना ज़िस्म दिखाने मे उन्हे क्या मज़ा आता है?
लेकिन जब दिखते ज़िस्म को गौर से देखो तो छोटे कपडें को खिचं कर बडा करने की कोशिश करती है ऐसा क्यौं? जब शर्म आती है तो ऐसा कपडा पहनते ही क्यौं हो?
मेरे इस सवाल का जवाब आज तक नही मिला. जितने प्राईवेट बिज़नेस कालेज है उनमें से ज़्यादातर मे ड्रेस कोड है क्यौंकी इससे सब एक समान दिखते है। आपको नही लगता की जब लडकी को जीन्स पहनने की इजाज़त दी जाती तो उसकी जीन्स कमर से काफ़ी नीचे कुल्हे के काफ़ी करीब आ जाती है और काफ़ी चुस्त हो जाती है इस हालत मे लडकी ने जीन्स के अन्दर क्या पहना है, उसका शेप क्या है? उसका बान्र्ड क्या है? रंग क्या है? और वो कहां से शुरु हो कर कहां खत्म हो रही है?
टाप ऐसा होता है जिसमे से पुरी कमर दिखती है, और अकसर इतना महीन होता है अन्दर पहने हुऎ वस्त्र का रंग भी दिखता है और ये भी दिखता है की कौन से हुक मे ये लगा हुआ है।
अब आप बताये इस लिबास को आप शालीन कहेंगे
बाकी क्या कहें, विचारों और उनकी फ्लाईट के बारे में तो आप लिख ही दिए हैं अच्छा खासा, अपने पास कहने को फिलहाल कुछ बाकी नहीं!
वैसे फोटो लगता है उसी कन्या की लगाई है जिनका दुपट्टा चोरी चला गया था और शिव कुमार मिश्र जी ने बड़े विस्तार से उस कन्या के दुख का वर्णन किया है अपनी पोस्ट में ।
हम ये देख के हैरां हैं
वीनस केसरी
अब क्या पहने क्या नहीं , पहनने वाले / वाली पे छोडा जाये .उसे भी ‘अभिव्यक्ति ‘ की आजादी क्यों न मान लें .
कन्या का फोटो को देखकर सिंघल साब भी मन ही मन पछताते होंगे कि क्यों ड्रेस कोड की वकालात की।