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इलाहाबाद के बाकी किस्से
By फ़ुरसतिया on May 25, 2009
मुख्य अतिथि के बाद कविताजी का नम्बर आया और उन्होंने आते-जाते श्रोताओं को हिन्दी कम्प्यूटिंग से संबंधित जानकारी विस्तार
से दी। कविताजी सुबह इसी विषय पर विज्ञान परिषद में व्याख्यान दे चुकी
थीं। वहां कम से कम उनके पास एक धीमा डायल अप से चलने वाला इंटरनेट कनेक्शन
मौजूद था जिसकी सहायता से वे देर से और धीरे-धीरे ही सही जिन साइट्स और
सुविधाओं के बारे में बता रहीं थीं उनको नेट पर दिखाती जा रही हैं। लेकिन
ब्लागिंग के दिग्गजों के व्याख्यान में इस तरह की किसी औपचारिकता की
व्यवस्था नहीं हो पायी थी शायद इसलिये सब कुछ मासूम श्रोताऒं की
कल्पनाशीलता पर निर्भर था कि वे व्याख्यान को किस अर्थ में ग्रहण करते हैं।
कविताजी के व्याख्यान के बाद हमारे अध्यक्ष महोदय जी की बारी आई। अध्यक्षजी बोले तो ज्ञानजी अब तक मालगाड़ियॊं की स्थितियों पर आने वाले अपने कार्यालय से आने-वाले लघु संदेशों से पर्याप्त हलकान हो चुके थे। उधर गाड़ियां आगे नहीं बढ़ रहीं थीं इधर वक्ता। बीच-बीच में सिद्धार्थ से भी उनका एस.एम.एसालाप हो रहा था। सिद्धार्थ ने ज्ञानजी का एकाध हलचलिया एस.एम.एस. दिखाया भी। कम होते श्रोताओं के बारे में जैसा सिद्धार्थ ने लिखा भी :
तो ज्ञानजी को तपे-तपाये और खांटी श्रोता मिले थे। सच्चे ब्लाग-जिज्ञासु। सब इंतजार में थे कि ज्ञानजी अब डायस पर आकर अपना सारगर्भित व्याख्यान देंगे।
लेकिन देरी के कारण ज्ञानजी का मन उखड़ गया था और वे बोले भाषण-वाषण बहुत हो चुके अब काम की बातें की जायें । सीधे सवाल-जबाब। हम बड़े खुश कि ज्ञानजी का भाषण तुरंतै खत्म हो गया लेकिन हमें तुरंत ज्ञानजी की बात का मतलब भी समझ में आ गया। हम लोग भाषण दिये और ज्ञानजी काम की बातें करेंगे। बताओ भला।
लिहाजा हम लोगों ने ज्ञानजी से भी भाषण देने के लिये आग्रह किया। ज्ञानजी पहले तो करुणानिधि की तरह ना-नुकुर करते रहे लेकिन बाद में हम लोगों और श्रोताओं तथा फ़ाइनली भाभीजी के इशारे पर करुणानिधि की ही तरह मान भी गये और केवल काम की बातें करने के अपने आग्रह को त्यागकर व्याख्यान भी देने को राजी हो गये।
अपने व्याख्यान में ज्ञानजी ने पावर प्वाइंट पर हिंदी में प्रस्तुतिकरण किया। अरविन्दजी के अंग्रेजी में प्रस्तुतिकरण पर सवाल उठाने वाले श्रोता पधार चुके थे अन्यथा वे शायद ज्ञानजी का प्रस्तुतिकरण देखकर और संतुष्ट होते।
ज्ञानजी ने अपने वक्तव्य में कुछ स्लाइड सुपर फ़ास्ट एक्सप्रेस की गति से दिखाईं और हम वहां न देख पाये। इनमें वे स्लाइड्स थीं जिनमें ज्ञानजी ने बताया था कि वे पोस्ट कैसे लिखते हैं। बाद में सिद्धार्थ की पोस्ट में हम उनके ब्लाग-लेखन रहस्य को बांच-बूझ पाये।
सभी के वक्तव्य समाप्त होने के बाद काम की बातें हुईं। काम की बातें मतलब खुला खेल फ़रक्खाबादी सवाल-जबाब। श्रोताओं ने सवाल पूछे हमने जबाब दिये। सवाल-जबाब के दौरान ही मुझे पता चला कि वर्डप्रेस में शायद ऐसा होता है कि बाई-डिफ़ाल्ट यह व्यवस्था होती है कि आपका ब्लाग केवल आपके द्वारा आमंत्रित/सदस्य लोग ही पढ़ पायेंगे।
एक श्रोता ने उनके ब्लाग पर लोग टिप्पणी नहीं करते। हमने पूछा कि आप कितनों के यहां टिप्पणी करते हैं? फ़िर हम लोगों ने बताया कि टिप्पणी करना एक तरह रिश्तेदारी में व्यवहार निभाना है। आप दूसरे के यहां नहीं जाओगे तो अगला भी आपके यहां आना बंद कर देगा या कम कर देगा। खासकर नये ब्लागर को अपना लिखना शुरू करने की सूचना देने के लिये सबसे उत्तम उपाय है कि नियमित और अधिक पढ़े जाने वाले ब्लागों पर टिपियाना शुरू कर दे ताकि लोगों को उसके बारे में पता चल सके।
श्रोताओं में ही एक सवाल वीनस केसरी ने दागा। सवाल टिप्पणी को लेकर कुछ था। हमने कहा- भैया तुमको क्या टिप्पणी की चिंता? तुम तो ब्लाग जगत के राजकुमार हो। तब वीनस ने बताया कि वे अपने लिये नहीं आम ब्लागर की बात कर रहे थे।
ब्लागिंग में मठाधीशी की बात अक्सर होती है। मेरी समझ में ब्लागिंग ऐसा माध्यम है जिसमें किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती। ऐसे तो मठाधीश होने का भ्रम तो कोई भी नया/पुरानी ब्लागर पाल सकता है कि हम मठाधीश हैं या अगला मठाधीश हैं। लेकिन एकदम खुल्ला माध्यम होने के कारण किसी की भी हमेशा नहीं चल सकती। अगर आप अच्छा, सार्थक लिखते हैं, आपका व्यवहार अच्छा है, लोगों से आपकी पटती है तभी लोग आपके पास आयेंगे। वर्ना आप चाहे कित्ते बड़े लिख्खाड़ हों और काबिल हों अगर मठाधीशी के भ्रम में ऐंठेगे तो बैठे रहेंगे।
अन्य कुछ सवाल-जबाब के बाद धन्यवाद प्रस्ताव हुआ और सबसे काम की बात धनंजय ने बताई
कार्यक्रम के बाद सब विदा हुये। ज्ञानजी घर चले गये। उस दिन उन्होंने अपने नाती के जन्म की सूचना न दी बाद में पता चली। हम लोगों को सिद्धार्थ भोजन कराने ले गये। हम मतलब अरविन्दजी, कविताजी, सिद्दार्थ, इरफ़ान और मैं तथा एकाध और साथी। खाने के दौरान और बाद में भी हमने भरसक प्रयास किया कि कविताजी और अरविन्दजी किसी मुद्दे पर भिड़ें/बहसियायें तो कुछ और बात बनें लेकिन न जाने क्यों दोनों समझदार बने रहे। समझदारी से अधिक मुझे लगा कि दिन भर के थके होने के कारण कविताजी और अरविन्दजी किसी मुद्दे पर भिड़ने के लिये एकमत न हो सके।
कार्यक्रम में इमरान और सिद्धार्थ ने बहुत मेहनत की। आयोजन को शानदार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इमरान ने तो इसके लिये अपना ब्लाग तक बना लिया जिस पर मुझे नहीं लगता कि नियमित पोस्टिंग हो पायेगी।
भोजन के बाद सबसे विदा होकर हम स्टेशन के चल दिये। हमेशा की तरह मैं इलाहाबाद में दो दिन रुकने की सोच के गया था लेकिन हमेशा की तरह रात की गाड़ी पकड़कर कानपुर के लिये चल दिये और रात तीन बजे घर पहुंचे गये।
जल्द ही इलाहाबाद में किसी चाय की दुकान पर ब्लाग-विमर्श होगा। रिपोर्ट का इंतजार करिये। ब्लागिंग में देर है अंधेर नहीं है।
कविताजी के व्याख्यान के बाद हमारे अध्यक्ष महोदय जी की बारी आई। अध्यक्षजी बोले तो ज्ञानजी अब तक मालगाड़ियॊं की स्थितियों पर आने वाले अपने कार्यालय से आने-वाले लघु संदेशों से पर्याप्त हलकान हो चुके थे। उधर गाड़ियां आगे नहीं बढ़ रहीं थीं इधर वक्ता। बीच-बीच में सिद्धार्थ से भी उनका एस.एम.एसालाप हो रहा था। सिद्धार्थ ने ज्ञानजी का एकाध हलचलिया एस.एम.एस. दिखाया भी। कम होते श्रोताओं के बारे में जैसा सिद्धार्थ ने लिखा भी :
मजे की बात यह रही कि जब कार्यक्रम अपने उत्स पर था तो निराला सभागार ठसाठस भरा हुआ था, लेकिन जब अन्त में ब्लॉगिंग के गुरुमन्त्र जानने की बारी आयी तो हाल में वही पच्चीस-तीस धैर्यवान श्रोता बैठे हुए थे जितने की इच्छा गुरुदेव ने जाहिर की थी।
तो ज्ञानजी को तपे-तपाये और खांटी श्रोता मिले थे। सच्चे ब्लाग-जिज्ञासु। सब इंतजार में थे कि ज्ञानजी अब डायस पर आकर अपना सारगर्भित व्याख्यान देंगे।
लेकिन देरी के कारण ज्ञानजी का मन उखड़ गया था और वे बोले भाषण-वाषण बहुत हो चुके अब काम की बातें की जायें । सीधे सवाल-जबाब। हम बड़े खुश कि ज्ञानजी का भाषण तुरंतै खत्म हो गया लेकिन हमें तुरंत ज्ञानजी की बात का मतलब भी समझ में आ गया। हम लोग भाषण दिये और ज्ञानजी काम की बातें करेंगे। बताओ भला।
लिहाजा हम लोगों ने ज्ञानजी से भी भाषण देने के लिये आग्रह किया। ज्ञानजी पहले तो करुणानिधि की तरह ना-नुकुर करते रहे लेकिन बाद में हम लोगों और श्रोताओं तथा फ़ाइनली भाभीजी के इशारे पर करुणानिधि की ही तरह मान भी गये और केवल काम की बातें करने के अपने आग्रह को त्यागकर व्याख्यान भी देने को राजी हो गये।
अपने व्याख्यान में ज्ञानजी ने पावर प्वाइंट पर हिंदी में प्रस्तुतिकरण किया। अरविन्दजी के अंग्रेजी में प्रस्तुतिकरण पर सवाल उठाने वाले श्रोता पधार चुके थे अन्यथा वे शायद ज्ञानजी का प्रस्तुतिकरण देखकर और संतुष्ट होते।
ज्ञानजी ने अपने वक्तव्य में कुछ स्लाइड सुपर फ़ास्ट एक्सप्रेस की गति से दिखाईं और हम वहां न देख पाये। इनमें वे स्लाइड्स थीं जिनमें ज्ञानजी ने बताया था कि वे पोस्ट कैसे लिखते हैं। बाद में सिद्धार्थ की पोस्ट में हम उनके ब्लाग-लेखन रहस्य को बांच-बूझ पाये।
सभी के वक्तव्य समाप्त होने के बाद काम की बातें हुईं। काम की बातें मतलब खुला खेल फ़रक्खाबादी सवाल-जबाब। श्रोताओं ने सवाल पूछे हमने जबाब दिये। सवाल-जबाब के दौरान ही मुझे पता चला कि वर्डप्रेस में शायद ऐसा होता है कि बाई-डिफ़ाल्ट यह व्यवस्था होती है कि आपका ब्लाग केवल आपके द्वारा आमंत्रित/सदस्य लोग ही पढ़ पायेंगे।
एक श्रोता ने उनके ब्लाग पर लोग टिप्पणी नहीं करते। हमने पूछा कि आप कितनों के यहां टिप्पणी करते हैं? फ़िर हम लोगों ने बताया कि टिप्पणी करना एक तरह रिश्तेदारी में व्यवहार निभाना है। आप दूसरे के यहां नहीं जाओगे तो अगला भी आपके यहां आना बंद कर देगा या कम कर देगा। खासकर नये ब्लागर को अपना लिखना शुरू करने की सूचना देने के लिये सबसे उत्तम उपाय है कि नियमित और अधिक पढ़े जाने वाले ब्लागों पर टिपियाना शुरू कर दे ताकि लोगों को उसके बारे में पता चल सके।
श्रोताओं में ही एक सवाल वीनस केसरी ने दागा। सवाल टिप्पणी को लेकर कुछ था। हमने कहा- भैया तुमको क्या टिप्पणी की चिंता? तुम तो ब्लाग जगत के राजकुमार हो। तब वीनस ने बताया कि वे अपने लिये नहीं आम ब्लागर की बात कर रहे थे।
ब्लागिंग में मठाधीशी की बात अक्सर होती है। मेरी समझ में ब्लागिंग ऐसा माध्यम है जिसमें किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती। ऐसे तो मठाधीश होने का भ्रम तो कोई भी नया/पुरानी ब्लागर पाल सकता है कि हम मठाधीश हैं या अगला मठाधीश हैं। लेकिन एकदम खुल्ला माध्यम होने के कारण किसी की भी हमेशा नहीं चल सकती। अगर आप अच्छा, सार्थक लिखते हैं, आपका व्यवहार अच्छा है, लोगों से आपकी पटती है तभी लोग आपके पास आयेंगे। वर्ना आप चाहे कित्ते बड़े लिख्खाड़ हों और काबिल हों अगर मठाधीशी के भ्रम में ऐंठेगे तो बैठे रहेंगे।
अन्य कुछ सवाल-जबाब के बाद धन्यवाद प्रस्ताव हुआ और सबसे काम की बात धनंजय ने बताई
“गूगल सर्च में टाइप करो blog, एक खिड़की खुलेगी, एक जगह लिखा मिलेगा create new blog, उसे चटकाओ और जो-जो कहे करते जाओ। ब्लॉग बन गया।” “हाँ इसके पहले जी-मेल का खाता होना जरूरी है। यदि नहीं है तो गूगल सर्च में gmail टाइप करो। एक खिड़की खुलेगी, एक जगह लिखा मिलेगा create new account , उसे चटकाओ और जो-जो कहे करते जाओ। खाता दो मिनट में बन जाएगा।”
कार्यक्रम के बाद सब विदा हुये। ज्ञानजी घर चले गये। उस दिन उन्होंने अपने नाती के जन्म की सूचना न दी बाद में पता चली। हम लोगों को सिद्धार्थ भोजन कराने ले गये। हम मतलब अरविन्दजी, कविताजी, सिद्दार्थ, इरफ़ान और मैं तथा एकाध और साथी। खाने के दौरान और बाद में भी हमने भरसक प्रयास किया कि कविताजी और अरविन्दजी किसी मुद्दे पर भिड़ें/बहसियायें तो कुछ और बात बनें लेकिन न जाने क्यों दोनों समझदार बने रहे। समझदारी से अधिक मुझे लगा कि दिन भर के थके होने के कारण कविताजी और अरविन्दजी किसी मुद्दे पर भिड़ने के लिये एकमत न हो सके।
कार्यक्रम में इमरान और सिद्धार्थ ने बहुत मेहनत की। आयोजन को शानदार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इमरान ने तो इसके लिये अपना ब्लाग तक बना लिया जिस पर मुझे नहीं लगता कि नियमित पोस्टिंग हो पायेगी।
भोजन के बाद सबसे विदा होकर हम स्टेशन के चल दिये। हमेशा की तरह मैं इलाहाबाद में दो दिन रुकने की सोच के गया था लेकिन हमेशा की तरह रात की गाड़ी पकड़कर कानपुर के लिये चल दिये और रात तीन बजे घर पहुंचे गये।
जल्द ही इलाहाबाद में किसी चाय की दुकान पर ब्लाग-विमर्श होगा। रिपोर्ट का इंतजार करिये। ब्लागिंग में देर है अंधेर नहीं है।
रिपोर्टिंग चौचक है भाई. बहुत अच्छे. तीन बजे रात-कानपुर में?? घर गये कि सबेरा होने के इन्तजार में स्टेशन पर बैठे रहे?
आपकी पोस्ट पढ़ कर लगा, वही खबर आजतक पर देख रहे हैं.
आभार.
वैसे मठाधीश हम है, अपने आप को माने तो कोई प्रोबलम है क्या?
इंतजार करते हैं.
रामराम.
ठीक कहते है .हमारा भी ऐसे ही बना था .अफ़सोस हमारे किसी पुराने मित्र ने अपने ब्लॉग पे हमारे आने की सूचना नहीं दी थी……
यदि मैं गलत नहीं हूँ तो पधारना यानि कि तशरीफ़ लाना। “चले गए” के लिए हिन्दी शब्द दिमाग में नहीं आ रहा है, उर्दू में “रुख़्सत हो चुके थे” कहेंगे!
सस्नेह — शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
” अपनी सारी नाज़ुक स्थिति के रहते हुए भी
अपना एक सुनियोजित स्थान बना पाया है
इसीकी खुशी है हमेँ तो “अंधेर ” नहीँ
उजाला -सा लगता है यहाँ आकर !
रीपोर्ट अच्छी लगी अनूप भाई -
- लावण्या
अब चाय की दूकान वाले ब्लौग-विमर्श की प्रतिक्षा है
हा हा हा
टिपिकल फ़ुरसतिया इश्टाइल, मजा आया।
मठाधीशी पर राजनीति हो रही है। कहीं न कहीं हर ब्लागर के अंदर मठाधीश विद्यामान है, जो गाहे-बगाहे खूँखार रूप ले लेता है
दो साल पहले आपसे ता मिल ही चुका था, ज्ञान जी से भी मिलना हो चुका था, कुछ दिन पूर्व सिद्धार्थ जी से भी मुलकात हुई थी। श्रीमती पांडेय जी, कविता थी, अरविन्द जी और वीनस जी आदि से मिलना सुखद और मिलने के बाद जल्द न मिल पाने का गम भी था।
इलाहाबाद को आप चाहे मायका कहे या अपनी ससुराल, साल भर में एक चक्कर मार ही लिया करे, अगर ब्लागर मीट, चाय या पान की दुकान पर मिलना हो तो भी चलेगा।
अरे यह कैसे छूट गया था -हाँ आभारी हूँ की आपने अपनी तरफ से कोशिश तो बहुत की मगर सही कह रहे हैं दोनों और से मनः स्थति लड़ने भिड़ने की नहीं बन पाई -ये लराई झगरा तो बस आभासी जगत के लिए बाहर तो हम अपने असली रूप में ही रहते हैं न -सौम्य ,शिष्ट और सभ्य ! मगर हैं आप गजब ! जहां कौनो झगडा न हो वहां लगा देगें ! और झरोखे से मुजरा करेंगें -अब हम सावधान हैं !
और खनवा में क्या क्या खाए ? देखिये ज्ञान जी पूंछ ही बैठे न ? पता नहीं कौनों थाली का फोटुआ नहीं खीन्चेस का ? नहीं त टीप दिहा जात इह्नीं -गयान जी के साथ साथ ऊ आपन डग्दराऊ साहब ,अरे उहै डॉ अमर कुमारौ का मुन्हा में पानी आई जात !
कितनी दुल्हन सी सजी सजी थाली आयी थी और आप कितनी ललचायी नजर से देख रहे थे -इन्हा तक की थाली क चक्कर में कविता जी के भी अट्टेंशन देने को कुछ क्षण भूलि गए थे ! अब जब ज्ञान जी ई सुनिहैं की सी रॉक रेस्टोरेंट ( इहै नमवा रहा न रेस्तुरेन्तवा का ? ) में छप्पन वयंजन वाली थाली आयी थी -दक्षिण भारतीय स्पेशल त खूब पछितैहें !
बहुत अच्छा लगा आप सभी से मिलकर और कविता जी की एक जिज्ञासा का उत्तर यहाँ दे दूं -वहां आपके साथ -संकोच के कारण नहीं दे पाया -वे अपनी फोटो से ज्यादा सुन्दर हैं ! कौनो श्रोता भी कुछ ऐसे सवाल उठाया था न की कौनों ब्लागर अपने चिट्ठे में चेपें फोटो से तनिकौ नहीं मिल रहे हैं ! इस बात से कविता जी थोडा व्यग्र हो गयीं थीं -तो अब जाकर जवाब !
कहै क त और भी बहुत स बात रही मगर जाई दें ! फिर कभौं !